कपिल देव

कपिल देव
चित्र

Friday, April 10, 2009

एक कर्मचारी का विदाई समारोह

चमक रहा है उसकी आंखों का
खालीपन

सेवाकाल के अंत पर आयोजित उत्सव में
बुलाया गया है
संगमरमरी सीढ़ियों
कालीनों बिछे गलियारों से
लकदक सुसज्जित सभ्य-सभागार में
लाया गया है

चकित चैधियायी आंखों से अपनी ही
देख रहा है वह
बधस्थल पर लाए गए बकरे-सा
होता हुआ अपना ही अभिनन्दन
अपने ही जीवन में
पहली और अंतिम बार
इस प्रकार!

दौड़ती हुई हाफती सी जिंदगी की दौड़ से
बाहर कर दिया गया है उसे आज ही दिसम्बर की इस
इकतीसवीं तारीख को
‘आफटरनून से’

कर दिया गया है रिटायर

सेवा काल का यह अंतिम प्रहर
प्रारम्भ है नए दुःस्वप्न का
खोल दी गई है लगाम
निकाल लिए गए हैं खुरों में ठुके नाल
और हांक दिया गया है चटियल रेगिस्तान में
आजाद कर दिया गया है
देस की बघ्घी में नधा यह घोड़ा
जीवन के उत्तर-काल में
निहत्था बना कर छोड़ दिया गया है
जबकि युद्ध अभी अधूरा है
और उसके पखुरे ढीले पड़ गए हैं
ढीली पड़ गई है धमनियां
दुह उठी हैं
गुजिस्ता पैंतीस वर्षो तक वफादारी
ईमानदारी की तवारीख लिखते लिखते
जर्जर हो उठे हैं
उसकी जिन्दगी के पन्ने

बिला गया उसका जीवन
‘सर्विस पुस्तिका’ और गोपनीय रिपोटों
का बेदाग स्वाभिमान ढोते ढोते!

विदाई के दुख से
प्रशन्न होने का
अपनी ही रची दुनिया से बेगाना
कर दिए जाने का
कैसा
कातर क्षण है
यह अपने ही जीवन को
अमिट इतिहास में बदलता हुआ
देखने का ?

बखान के चैतरफा शोर से आक्रांत उसे
जिस समादृत आसन पर
बैठाया गया है--सर्वोच्च ईश्वर के प्रभावलय के
ठीक स्पर्श-विन्दु पर
सिंह के अयाल के इतने करीब होने के सुख और डर के बीच
आत्म-चकित है वह

अनघटा अटपटा अनुभव यह रोमांचक कितना
कातर बना रहा है उसे
कितना कृतज्ञ !
पैंतीस वर्षों का चिर प्रतीक्षित
पुरस्कार यह मौखिक
महोच्चार !

फहराई जा रही है
उसकी कीर्ति की पताका
खोखले शब्दों के फूल झर रहे हैं सभाकक्ष में
भरा जा रहा है भावनाओं का अकिंचन कटोरा
सद्वचनों के चिल्लर सिक्कों से
उसके जीवन में पहली और
अंतिम बार

मैं देख रहा था कि
उसके भीतर की उदासी की
धूसर रेत को भिगोती
बेगानी प्रशंसाओे की बौछारों नें
उसे असुविधा में डाल दिया है
रोना चाहता है जार जार
इस बहिष्कार-समारोह में
अपने अगोरते उदास बच्चों का आंसू
जबकि उसके पास रूमाल भी नहीं है

भीगते शब्दों से सराबोर
फूलों-मालाओं लदे इस समारोह से
उसने अलग कर लिया है अपनी आत्मा को
हो गया है अनात्म

मारण उच्चाटन मंत्रों से भरे हुए
अभिनन्दन-भाषणों से
डरी उसकी आत्मा
उठ कर
अपने बाल बच्चों में चली गई है

6 comments:

  1. आयोजन से बाद या कहें अर्से बाद.... इन शब्‍दों को देखा जाए तो


    आजाद कर दिया गया है
    देस की बघ्घी में नधा यह घोड़ा
    जीवन के उत्तर-काल में
    निहत्था बना कर छोड़ दिया गया है
    जबकि युद्ध अभी अधूरा है
    और उसके पखुरे ढीले पड़ गए हैं
    ढीली पड़ गई है धमनियां
    दुह उठी हैं
    गुजिस्ता पैंतीस वर्षो तक वफादारी
    ईमानदारी की तवारीख लिखते लिखते


    किसी नौकरीपेशा युवक के लिए क्रांतिकारी भी सिद्ध हो सकते हैं और भयावह भी।


    वैसे रिटायरमेंट का दृश्‍य इतना बासी हो चुका है कि इस पर कुछ भी लिख दिया जाए कभी नया दिखाई नहीं देता।

    शेष शुभम्

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  2. विदाई समारोह में निम्न पदीय रिटायर कर्मी का अच्छा व्यक्ति चित्र खींचा है आपने !

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  3. एक ऐसे व्यक्ति का दर्द और पीडा वही समझ सकने में सक्षम है जिसने इसे भोग हो ....शायद हम नोजवान ठीक से समझ भी न सकें

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  4. भावपूर्ण..
    मैं तो यूँ ही टकरा गया आज इस ब्लाग से,
    पर, जो भी पाया बेहतरीन पाया.. एक ताज़गी है, इससे भी ज़्यादा तो खूबसूरत लफ़्ज़ों की रवानगी है..
    बेहतरीन.. बस बेहतरीन !
    बाई द वे, आपका ब्लाग ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत पर दिख नहीं रहा, कोई ख़ास कारण ?

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  5. Priya Dr Amar ji
    Mai Blog ke mamale me bahut kam jaanata hoon. fir kabhi Blog bani par jaane ke baare me socha nahin.aap kahate hain to koshish karoonga
    kapildev

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  6. मेरे आग्रह का मान रखने का धन्यवाद,
    आपका यूँ अनदेखे अलग पड़ा रह जाना, भला न लग रहा था । सो, कह दिया ।
    इस बेहतरीन कविता का लिंक मैंनें चिट्ठाचर्चा पर भी दिया है !

    http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/04/blog-post_26.html#comments

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