कपिलदेव
यह समझाने का समय नहीं है
समझने का भी नहीं
यह
समझने और समझाने से बाहर निकल जाने का समय है
समय से बाहर
निकल जाने का समय
सूरज नें अपने घोड़ों को कार्यमुक्त कर दिया है
सुबह और शाम की दूरियां पूरी करता है अब
स्वचालित यान से
टापों का शोर अब नहीं सुनाई देता
घोड़ों का हिन-हिन
किसी मल्टीनेशनल कम्पनी
ने सौदा कर लिया है
घोड़ों की चर्वी निकाली जाएगी
सांपों का कृतृम जहर बनेगा
पिलाया जाएगा विष कन्याओं को
समय की धूपघड़ी
अब किसी सूरज का मुहताज नहीं
सूरज अब किसी धूप घड़ी के लिए नहीं उगता
डूबता भी नहीं किसी कन्या कुमारी के अंतरीप में
ठुक ठुक आवाजों के बीच
सुनाई देता समय
गायब कर दिया है किसी
अभियांत्रिक नें
घड़ी साजों की आंखों पर चिपका लेंस गिर गया है
समय की इक्कीसवीं तारीख के आस पास
जो उसके होने की आहट थी
सोचा जो, वह कहा नहीं
कहा वह नहीं,
जो सोचा
कहने और सोचने के बीच
फंसा है यह समय।
जिद ने तर्क को पीछे ठेल दिया है
वत्सलता को काठ मार गया है
भविष्य का ‘भय’
माताओं की कोख में
भ्रूणों को
इतिहास से आगे निकल जाने का ‘कैप्सूल कोर्स’ करा रहा है
अजन्मा वक्त कहता है--
नहीं, अब और नहीं
गर्भस्थ हूं तो क्या-
सवाल तो करूंगा मांगूगा पिताओं से
निश्चित-निश्चिंत उज्वल वर्तमान
धरती पर आने की
कीमत वसूलूंगा।
भविष्य और वर्तमान की संधि पर बैठा
विलाप कर रहा है
अबूढ़ा समय
बिला गए हैं उसके सपने
कट गई है डोर
कब कहां गिरेगा बूढ़ा समय
जो सबका पिता है,
खो गया है उसका प्रमाण-पत्र
पुरखों का दिया
10-4-09
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