प्रमेय नहीं है ‘जीवन’
(कायांतरण)
-कपिलदेव
‘कायांतरण’ युवा कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव का नया संग्रह है। बीसवीं सदी के आखिरी दसक मंे उभरी युवा कवियों की पीढ़ी नें इन दो दसकांे के दौरान कविता में घिसी पिटी परिपाटियों का निर्माण किया है। अतिपरिचित काव्यबोध और भाषायी उपस्करों से सजी धजी इस पीढ़ी की कविता का एक बड़ा संकट यह है कि इसका रचनात्मक वलय बहुत तेजी से अपनी चमक खोता जा रहा है। वहां एक तरह का एकसांपन मौजूद है जो हमारी अभिरूचि को उत्प्रेरित कर पाने में असमर्थ है। जितेन्द्र का यह ताजा संग्रह पढ़ते हुए सुखद लगा कि अपनी पीढ़ी के कवियों में लगभग अपवाद की तरह उनकी कविताएं किसी परिपाटी का अनुकरण नहीं करतीं। इस संग्रह की कविताओं का बोध-वृत्त और भाषा-संवेदन इतना प्रकृत ओैर ताजा है कि उसे किसी परिपाटी में-अतिरिक्त उपकरणो की सहायता से-रचा ही नहीं जा सकता था। उनकी कविता अपने रचे जाने के लिए एक सहज वातावरण और खुला विस्तार मांगती है। संग्रामी गद्य में जीवन का दैनिक घमासान इस संग्रह में जिस नई बनक के साथ, जगह जगह बिखरा है वह हिन्दी कविता में एक नयी शुरूआत की तरफ संेकेत करता है।
जितेन्द्र की इन कविताओं का आंतरिक संवेग राजनीतिक रूप से सजग, मूर्त और स्पष्ट है। धरेलू गद्य की गरिमा से रचीपगी भाषा में लिखी गई इन कविताओं मे ,अपने समय को समझने का आग्रह, आततायियों को अस्वीकार करने की चेतना और हत्यारों के विरोध का तीखा स्वर मौजूद है। इस संग्रह की कविताओं का स्वर उस मनुष्य का स्वर है जो ‘‘ जानता है/कि यही/सिर्फ यही विकल्प है/इस समय अपने बचाव का’’। इन कविताओं में निहित कवि का द्वंद्वात्मक विवेक विकल्प का जो विमर्श निर्मित करता है वह यथार्थ और अवधारणाओं की टकराहट से निगमित एक ऐसा विमर्श है जिसमें से कवि के निजी जीवनानुभव का सार झांकता है।
हिन्दी कविता के पारम्परिक आस्वाद में छेड़छाड़ करके जितेन्द्र नें इस संग्रह की कविताओं को अधिक संस्पर्शी बना दिया है। इस तरह का साहस संयोग से हिन्दी में किसी और युवा कवि के यहां कम ही देखने को मिलता है। इन कविताओं की मौलिक चेष्टा उस मनुष्य के आंतरिक अनुभव-बोध से जुड़ने की है जो अपने वर्तमान को अपने विगत से एक क्षण के लिए भी विच्छिन्न नहीं होने देना चाहता। जो विचारों की वेदी पर भावुकता की कीमत चुकाने को तैयार नहीं है। जो स्मृतियों में बार बार लौटने के बेतुकेपन से अनजान नहीं है मगर फिर भी स्मृतियो में बार बार लौटना चाहता है। याद रखने की जरूरत है कि स्मृतियों के भीतर जितेन्द्र अपने समय के स्वप्न की तलाश करते हैं। यह तलाश बेशक किसी स्वार्थी राजनीतिक विचार से प्रेरित नहीं है। यह मनुष्यता के सपनों को साकार करने की सजल आकांक्षा से प्रसूत है। उनकी कविता में राजनीतिक ‘विचार’ के अनेक संदर्भ मौजूद हैं। लकिन वस्तुतः तो उनकी कविता के मूल में स्वयं वह मनुष्य है, जिसे अपने सपनों की खातिर इन सभी (राजनीतिक आदि) प्रयोजनों से होकर गजुरना पड़ता है। इसलिये राजनीति और विचार उनकीे कविता के उपजीव्य होकर भी साध्य नहीं हैं। साध्य तो मनुष्य का स्वप्न ही है । जितेन्द्र का कवि जानता है कि ‘‘मनुष्य का जीवन-सार तो उसके सपनों में होता है।’’ सपने मनुष्य की आकांक्षाओं के संघनीभूत द्रव्य होते हैं। कवि का विश्वास है कि मनुष्य का सारा भौतिक-राजनीतिक संघर्ष सिर्फ और सिर्फ अपने सपनों को पाने का जरिया है। इसीलिए वह बार बार सपनों की बात करता है और कहता भी है कि‘‘ मैं कवि हूं जीवन का सपनों का/उजास भरी आंखों का’’।
‘‘ उजास भरी आंखो का’’ यह कवि आश्चर्य नहीं कि अपनी कविता में जीवित जाग्रत चरित्रों से जुड़ी तमाम स्मृतियों को अपना कथ्य बनाता है और उनके सहारे, जीवन को स्ंास्कार देने वाली मूल्य-चेतना की ताकीद करता है। जितेन्द्र का स्मृति-प्रेम किसी स्मृतिजीवी का स्मृति-प्रेम नहीं है। एक कविता में वे कहते हैं-‘‘स्मृतियां सूने पड़े घरों की तरह होती हैं/लगता है जैसे/बीत गया सब कुछ/पर बीतता नहीं है कुछ भी’’। उनका मानना है कि ,‘‘जो नहीं जानते स्मृति-सत्य/वे नहीं जान सकते/स्मृतियों में जाना हमेशा सुख मंे जाना नहीं होता/स्मृतियों में जाना नहीं है चुनना कोई सुरक्षित कोना/वे नहीं जान सकते ‘लौटना’ किस वजन की क्रिया है’’। स्मृतियों की तरफ जितेन्द्र का लौटना दरअस्ल उस ओर लौटना है जहां जीवन के खंडित दृश्यों को एक साथ देखना सम्भव हो पाता है। यह उस आदमी का लौटना हैं जो अतीत की तुला पर अपने वर्तमान को तोलना चाहता है और जानना चाहता है कि क्या ‘‘ जो फिर मौका मिले राह चुनने का/तो चुनेगा वही जो चुना था पहले/या कोई और जहां अधिक राग संभावित हो/जहां विराग भी हो तनिक लालसाओं से।’’ जितेन्द्र का कवि जीवन-राग की खोज में बार बार स्मृतियों में लौटता है। संग्रह की लगभग हर कविता किसी न किसी बहाने स्मृति में लौटती है और स्मृति के आलोक में ही अपने वर्तमान की पड़ताल करती है। इन कविताओं में दो समयों का तुलनात्मक बोध हमारे भीतर छीजती हुई मनुष्यता को सामने लाता है और अतीत के आईने में अपने वर्तमान का बिम्ब दिखाने का प्रयास करता है। देखना दिलचस्प है कि जितेन्द्र किस तरह स्मृति को अपने समय में छलांग लगाने के ‘लांचिंग पैड ’ की तरह स्तेमाल करते हैं। हिन्दी कविता में स्मृति का ऐसा अभिनव उपयोग कम ही देखने को मिलता है।
‘उम्मीद’ और ‘जिजीविषा’ इस संग्रह की कविताओं का दूसरा जरूरी कथ्य है। इन कविताओं में नाउम्मीदी के संदर्भ कम नहीं हैं। लेकिन उम्मीद के सूत कहीं भी टूटते नहीं हैं-‘‘फिर भी उम्मीद का एक सूत /कहीं उलझा रहता है पुतलियों में/जो गाहे बगाहे खिंच जाता है।’’ उनकी कविताओं में जगह जगह हताश करने वाले समय का रूपक मौजूद है। मगर वह रूपक हमेशा उम्मीद की एक लौ के साथ ही पूरा होता है-‘‘इस समय घना अंधेरा है/दृश्य डूब गये हैं रात के जादू में/कहीं कहीं कभी कभी दिखते हैं/ जुगुनुओं की तरह कुछ चिराग/बस सन्नाटे में उभरती है रेल की आवाज/ एक बच्ची उधम मचाती है’’। अंधेरे में बच्ची का उधम जिस उम्मीद की तरफ इशारा है वह जितेन्द्र की कविता के आंतरिक विन्यास में हर जगह मोैजूद है। अमरीकी उदारीकरण के सामने कमर तक झुकने को तैयार हमारी युवा पीढ़ी में भी कवि को उम्मीद नजर आती है। लगभग धोषणा करती हुई भाषा में वह कहता है-‘‘मित्रों! अभी सूखी नहीं है उम्मीद की नदी/अभी बाकी हैं बहुत से लोगों में प्रतिरोध जैसी आदतें/अभी लोग इतने विवेक शून्य नहीं हुए हैं/कि जान न सकें/कि तमाम शक्ति के बावजूद/अंतिम शक्ति नहीं है अमेरिका/अमेरिका पर भारी पड़ेगी/ मनुष्यता की जिजीविषा’’। मनुष्य में छिपी अप्रतिहत जिजीविषा राजनीतिक प्रतिरोध रचने का माध्यम बनती है। कवि की प्रतिरोधी चेतना को इसी रूप में जगह जगह व्याप्त देखा जा सकता है।
संग्रह की कविताएं परिवारी सम्बन्धों के प्रति लगातार घटती हुई हमारी आसक्ति को बार बार उघाड़ती हैं। रिश्तों का क्षरण आज का दुर्निवार सच है। इस क्षरण को लेकर इन कविताओं में बार बार चिंता व्यक्त की गई हेै-‘‘किसी भी समय में/जिन रिश्तों को होना चाहिए पानीदार/और पानी की तरह पारदर्शी/ वे अब काठ की तरह हैं/........कोई माने या न माने/पर बिजली की तरह गिरता हुआ यही सत्य है हमारे समय का/मृत्यु जितना सत्य।’’ इस ‘मृत्यु जितना सत्य’ के अंधेरे में आदमियों से भरा हुआ घर भी खोया खोया सा रहता है-‘‘अब बहुत बहुत दिनों में/ कभी कभी भरता है पूरा घर/और कभी जब भर जाता है/तब भी लोग न जाने क्यो खोये खोये से रहते हैं।’’
यह बात बार बार दुहराने की जरूरत है कि इस संग्रह की कविताओं का राजनीतिक बोध सामाजिक और नैतिक संवेदना से अनुप्राणित है। यहां विचारों का प्रतिबद्ध आग्रह नहीं है।ये कविताएं राजनीतिक प्रश्नों को भी जीवन के नैतिक प्रश्नों के दायरे में उठाती है और किसी राजनीतिक अवधारणा को दुहराने की बजाय राजनीतिक दायरों में बार बार दुहराए जाने वाले विचारों को नैतिकता के तकाजे से समझने की कोशिश करती हैं। राजनीतिक अवधारणाओं को लेकर निरंतर एक नैतिक बहस इन कविताओं की निजी विशेषता है। एक कविता मंें अपने आप से बहस करते हुए कवि पूछता है कि ‘‘ जीवन एक कोने से दूसरे कोने तक/कैसे हो सकता है समतल/या उबड़ खाबड़ ही/कोई भी प्रतिमान कैसे हो सकता है स्थायी/या कोई भी भाव कैसे हो सकता है सबमें/एक ही तरह से।‘‘ जाहिरा तौर पर यह समानता के प्रचलित सिद्धान्त पर एक टिप्पणी है जिसे हमारी समकालीन कविता का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपना वैचारिक प्रतिमान मान बैठा है। लेकिन जितेन्द्र नहीं मानते हेैं, क्योकि यह प्रतिमान प्राकृतिक न्याय अथवा मनुष्य के स्वभाव के अनुरूप नहीं है -‘‘इस दुनिया में सम्भव नहीं भावों की एक रूपता/कुछ कम अधिक होता ही रहता है इसमें/वैसे भी चाहत को सिद्ध नहीं किया जा सकता प्रमेंय की तरह’’। जितेन्द्र जीवन के किसी भी आयाम को प्रमेय की तरह सिद्ध करने के खिलाफ हैं। मनुष्यता-बोध उनकी काव्य-दृष्टि में इस गहराई तक न्यस्त है कि वे हर उस मान्यता को, जो किसी स्थूल नियम से बंधा होता है, मानने से इनकार करते हैं। स्वयं अपने विवेक से अर्जित जितेन्द्र की यह काव्य-दृष्टि उनके पर्यवेक्षण को तीब्र और यथार्थपरक बनाती है। उदारीकरण के चकाचौंध में हार जीत की बाजी का खेल जितेन्द्र की विवेकशीलता को पराजित नहीं कर पाता और वे यह कहने का साहस कर पाते हैं कि- ‘‘जीतने के प्रतिमान बदल भी सकते हैं कभी/कभी बदल सकते हैं चलने के भी मेयार/इसलिए किसी सच को मान लेना स्थाई सच/समय की नदी में नहाने से बचने का मार्ग तलाशना है।’’ लेकिन ऐसा भी नहीं कि जितेन्द्र समानता के सिद्धान्त या स्वीकृत प्रतिमानों का हर हाल में विरोध ही करते हैं। समानता के प्रश्न को जब वे नैतिक नजरिये से, मनुष्य की आकांक्षा और स्वप्न के धरातल पर उठाते हैं तो अस्वाभाविक सा दिखने वाला समानता का वही राजनीतिक सिद्धान्त नैतिकता के आधार पर सम्भव और उचित जान पड़ने लगता है और इस तरह एक राजनीतिक विचार नैतिक विचार के दायरे में आकर औचित्य प्राप्त कर लेता है-‘‘ फिर भी इस इच्छा को कौन कहेगा बेमतलब/कि चीजांे का समान वितरण होना चाहिए/मनुष्य को मनुष्य ही समझा जाना चाहिए’’। जितेन्द्र की कविता प्रमाणित करना चाहती है कि मनुष्यता के नैतिक धरातल पर सिद्ध होकर ही समानता का राजनीतिक सिद्धांत हमारी चेतना को गतिशील बना सकता है। वे राजनीतिक विचारों को मनुष्य-मन की स्वाभाविक समझ में शामिल होते देखना चाहते हैं। इसलिए उनके यहां एकतरफापन और आग्रह नहीं है। उनकी कविता जीवन के सवालों को सजीव द्वंद्वों में हल होते देखना चाहती है।
व्यौरों में छिपी काव्य-ध्वनियां जितेन्द्र की कविता की ताकत हैं। वाक्यों दर वाक्यों में गंुथा सीधा-सादा वर्णन-संयोजन कविता की संवेदना को अनुभूति के जिस अनुरोध तक ले जाता है वहां पाठक की चेतना देर तक स्पंदित होती रहती है। इन कविताओं में जीवन का सच कुछ इस तरह घुला होता है कि उसे किसी विचार या वस्तु के ठीहे पर विवेचित करने का कोई भी आग्रह बेमानी लगने लगता है। ‘तेरह वर्ष बाद जेएनयू में एक दिन फिर’ ‘सरकार की नजर’ ‘अजिताभ बाबू’ ‘पुकार’,‘कायांतरण’ और ‘परवीन बाबी’ सरीखी कविताएं आख्यानात्मक विवरणों के आवरण में, चरित्रों या स्थितियों के बहाने से अपना काव्यात्मक प्राप्तव्य हासिल करती हैं। यह प्राप्तव्य कभी‘एक दूसरे को अपलक डबडबाई आंखों से निहारने’ जैसी क्रिया में हासिल हो सकता है तो कभी एक औरत के, सिहरन पैदा करने वाले इस बयान में कि -‘‘उनतीस की उमर में/ तीन तीन बच्चों की उंगलियां थामे/खड़ी हूं चौराहे पर/न इस पार कोई/ न उस पार’’। कईबार इन कविताओं की कुछ पंक्तियों में अनुगुंजित ध्वनियां दूर तक हमारा पीछा करते हुए हमें हमारे दिलों के एकांत में छोड़ आती हैं-‘‘अब भी मिलते हैं/ तो धीरे से चली आती है हमारे मध्य/कमरा नंम्बर चौदह की ऊष्मा/जहां हमने सीखी थी/दूसरे को ‘स्पेस’ देने की कला/जहां हमने जाना था/अन्य को महत्व देने का महत्व ’’ इन पंक्तियों को संदर्भ से जोड़ कर पढ़ें तो ममेतर से जुड़ने का अकथनीय आनन्द हमारी संवेदन तंत्रिकाओं में देर तक बजता रहता है।
कहा जा सकता है कि स्त्री और दलित जीवन समकालीन हिन्दी कविता की संवेदनशीलता का बैरोमीटर है। स्त्री की जीवन दशाओं पर हिन्दी में बेशुमार कविताएं लिखी गई हैं। जितेन्द्र की विरलता इस बात में है कि उनकी कविता घरेलू जीवन की पारम्परिक त्रासदियों के भीतर घुट रही स़्ि़त्रयों को अपना उपजीव्य बनाती है। यह वह स्त्री है ‘‘जिसकी उम्र का अधिकांश/आंसुओं से भीगे आंचल को सुखाने में बीता है।’’ या जो ‘‘ अनादि काल से पी रहीं हैं अपना खारापन/बदल रही है/ आंखों के नमक को चेहरे के नमक में ’’ या ‘‘जिसे बांध दिया गया है अनजान खूंटे से/बिना यह देखे/ कि कितना दम है उसमें/’’ पारम्परिक खूटों से बंधी ये वे स्त्रियां हैं जो अपने पति के ‘होने’ से अपना ‘होना’ प्रमाणित कर पाती हैं। पति के अस्तित्व से अस्तित्वमान होने की सामाजिक बिडम्बना ढोती हुई ये स़्ित्रयां सिंदूर में अपने जीवन का अर्थ तलासती जीवन गुजार देती हैं। कवि कहता है कि ‘‘ मित्रों,पहले तो नहीं था पर/ अब विश्वास हो गया है मुझे/कि सिंदूर भय है स्त्री का’’। कवि को खूब पता है कि सिंदूर का भय ढोती हुई स्त्रियों के संदर्भ में स्त्रीमुक्ति के सैद्धान्तिक विमर्शो की बात करना हास्यास्पद होगा। इसलिए सीधा सा मानवीय प्रश्न उठाते हैं और परम्परागत पैतृक समाज में ही इन स्त्रियों के लिए बेहतर स्पेस की अपेक्षा करते हैं-‘‘ सोचता हूं/जो डर अनादि काल से/ घुला हुआ है/रक्त मज्जा विवेक में/वह कैसे निकलेगा।’’
इस संग्रह में ‘लोकतंत्र में लोक कलाकार’, ‘प्रधानमंत्री का दुख’,और ‘लौटना किस वनज की क्रिया है’ सरीखी कविताएं भी है। इन कविताओं का वजन हिन्दी कविता को एक नया फलक देता है। जितेन्द्र विवेकपूर्ण मनुष्यता के आकांक्षी कवि हैं और यह आकांक्षा इन कविताओं में जगह जगह देखी जा सकती है। आशा की जा सकती है कि यह संग्रह हिन्दी कविता को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करेगा।
समीक्ष्य संग्रह:ः ‘कायान्तरण’
कवि: जितेन्द्र श्रीवास्तव
(कायांतरण)
-कपिलदेव
‘कायांतरण’ युवा कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव का नया संग्रह है। बीसवीं सदी के आखिरी दसक मंे उभरी युवा कवियों की पीढ़ी नें इन दो दसकांे के दौरान कविता में घिसी पिटी परिपाटियों का निर्माण किया है। अतिपरिचित काव्यबोध और भाषायी उपस्करों से सजी धजी इस पीढ़ी की कविता का एक बड़ा संकट यह है कि इसका रचनात्मक वलय बहुत तेजी से अपनी चमक खोता जा रहा है। वहां एक तरह का एकसांपन मौजूद है जो हमारी अभिरूचि को उत्प्रेरित कर पाने में असमर्थ है। जितेन्द्र का यह ताजा संग्रह पढ़ते हुए सुखद लगा कि अपनी पीढ़ी के कवियों में लगभग अपवाद की तरह उनकी कविताएं किसी परिपाटी का अनुकरण नहीं करतीं। इस संग्रह की कविताओं का बोध-वृत्त और भाषा-संवेदन इतना प्रकृत ओैर ताजा है कि उसे किसी परिपाटी में-अतिरिक्त उपकरणो की सहायता से-रचा ही नहीं जा सकता था। उनकी कविता अपने रचे जाने के लिए एक सहज वातावरण और खुला विस्तार मांगती है। संग्रामी गद्य में जीवन का दैनिक घमासान इस संग्रह में जिस नई बनक के साथ, जगह जगह बिखरा है वह हिन्दी कविता में एक नयी शुरूआत की तरफ संेकेत करता है।
जितेन्द्र की इन कविताओं का आंतरिक संवेग राजनीतिक रूप से सजग, मूर्त और स्पष्ट है। धरेलू गद्य की गरिमा से रचीपगी भाषा में लिखी गई इन कविताओं मे ,अपने समय को समझने का आग्रह, आततायियों को अस्वीकार करने की चेतना और हत्यारों के विरोध का तीखा स्वर मौजूद है। इस संग्रह की कविताओं का स्वर उस मनुष्य का स्वर है जो ‘‘ जानता है/कि यही/सिर्फ यही विकल्प है/इस समय अपने बचाव का’’। इन कविताओं में निहित कवि का द्वंद्वात्मक विवेक विकल्प का जो विमर्श निर्मित करता है वह यथार्थ और अवधारणाओं की टकराहट से निगमित एक ऐसा विमर्श है जिसमें से कवि के निजी जीवनानुभव का सार झांकता है।
हिन्दी कविता के पारम्परिक आस्वाद में छेड़छाड़ करके जितेन्द्र नें इस संग्रह की कविताओं को अधिक संस्पर्शी बना दिया है। इस तरह का साहस संयोग से हिन्दी में किसी और युवा कवि के यहां कम ही देखने को मिलता है। इन कविताओं की मौलिक चेष्टा उस मनुष्य के आंतरिक अनुभव-बोध से जुड़ने की है जो अपने वर्तमान को अपने विगत से एक क्षण के लिए भी विच्छिन्न नहीं होने देना चाहता। जो विचारों की वेदी पर भावुकता की कीमत चुकाने को तैयार नहीं है। जो स्मृतियों में बार बार लौटने के बेतुकेपन से अनजान नहीं है मगर फिर भी स्मृतियो में बार बार लौटना चाहता है। याद रखने की जरूरत है कि स्मृतियों के भीतर जितेन्द्र अपने समय के स्वप्न की तलाश करते हैं। यह तलाश बेशक किसी स्वार्थी राजनीतिक विचार से प्रेरित नहीं है। यह मनुष्यता के सपनों को साकार करने की सजल आकांक्षा से प्रसूत है। उनकी कविता में राजनीतिक ‘विचार’ के अनेक संदर्भ मौजूद हैं। लकिन वस्तुतः तो उनकी कविता के मूल में स्वयं वह मनुष्य है, जिसे अपने सपनों की खातिर इन सभी (राजनीतिक आदि) प्रयोजनों से होकर गजुरना पड़ता है। इसलिये राजनीति और विचार उनकीे कविता के उपजीव्य होकर भी साध्य नहीं हैं। साध्य तो मनुष्य का स्वप्न ही है । जितेन्द्र का कवि जानता है कि ‘‘मनुष्य का जीवन-सार तो उसके सपनों में होता है।’’ सपने मनुष्य की आकांक्षाओं के संघनीभूत द्रव्य होते हैं। कवि का विश्वास है कि मनुष्य का सारा भौतिक-राजनीतिक संघर्ष सिर्फ और सिर्फ अपने सपनों को पाने का जरिया है। इसीलिए वह बार बार सपनों की बात करता है और कहता भी है कि‘‘ मैं कवि हूं जीवन का सपनों का/उजास भरी आंखों का’’।
‘‘ उजास भरी आंखो का’’ यह कवि आश्चर्य नहीं कि अपनी कविता में जीवित जाग्रत चरित्रों से जुड़ी तमाम स्मृतियों को अपना कथ्य बनाता है और उनके सहारे, जीवन को स्ंास्कार देने वाली मूल्य-चेतना की ताकीद करता है। जितेन्द्र का स्मृति-प्रेम किसी स्मृतिजीवी का स्मृति-प्रेम नहीं है। एक कविता में वे कहते हैं-‘‘स्मृतियां सूने पड़े घरों की तरह होती हैं/लगता है जैसे/बीत गया सब कुछ/पर बीतता नहीं है कुछ भी’’। उनका मानना है कि ,‘‘जो नहीं जानते स्मृति-सत्य/वे नहीं जान सकते/स्मृतियों में जाना हमेशा सुख मंे जाना नहीं होता/स्मृतियों में जाना नहीं है चुनना कोई सुरक्षित कोना/वे नहीं जान सकते ‘लौटना’ किस वजन की क्रिया है’’। स्मृतियों की तरफ जितेन्द्र का लौटना दरअस्ल उस ओर लौटना है जहां जीवन के खंडित दृश्यों को एक साथ देखना सम्भव हो पाता है। यह उस आदमी का लौटना हैं जो अतीत की तुला पर अपने वर्तमान को तोलना चाहता है और जानना चाहता है कि क्या ‘‘ जो फिर मौका मिले राह चुनने का/तो चुनेगा वही जो चुना था पहले/या कोई और जहां अधिक राग संभावित हो/जहां विराग भी हो तनिक लालसाओं से।’’ जितेन्द्र का कवि जीवन-राग की खोज में बार बार स्मृतियों में लौटता है। संग्रह की लगभग हर कविता किसी न किसी बहाने स्मृति में लौटती है और स्मृति के आलोक में ही अपने वर्तमान की पड़ताल करती है। इन कविताओं में दो समयों का तुलनात्मक बोध हमारे भीतर छीजती हुई मनुष्यता को सामने लाता है और अतीत के आईने में अपने वर्तमान का बिम्ब दिखाने का प्रयास करता है। देखना दिलचस्प है कि जितेन्द्र किस तरह स्मृति को अपने समय में छलांग लगाने के ‘लांचिंग पैड ’ की तरह स्तेमाल करते हैं। हिन्दी कविता में स्मृति का ऐसा अभिनव उपयोग कम ही देखने को मिलता है।
‘उम्मीद’ और ‘जिजीविषा’ इस संग्रह की कविताओं का दूसरा जरूरी कथ्य है। इन कविताओं में नाउम्मीदी के संदर्भ कम नहीं हैं। लेकिन उम्मीद के सूत कहीं भी टूटते नहीं हैं-‘‘फिर भी उम्मीद का एक सूत /कहीं उलझा रहता है पुतलियों में/जो गाहे बगाहे खिंच जाता है।’’ उनकी कविताओं में जगह जगह हताश करने वाले समय का रूपक मौजूद है। मगर वह रूपक हमेशा उम्मीद की एक लौ के साथ ही पूरा होता है-‘‘इस समय घना अंधेरा है/दृश्य डूब गये हैं रात के जादू में/कहीं कहीं कभी कभी दिखते हैं/ जुगुनुओं की तरह कुछ चिराग/बस सन्नाटे में उभरती है रेल की आवाज/ एक बच्ची उधम मचाती है’’। अंधेरे में बच्ची का उधम जिस उम्मीद की तरफ इशारा है वह जितेन्द्र की कविता के आंतरिक विन्यास में हर जगह मोैजूद है। अमरीकी उदारीकरण के सामने कमर तक झुकने को तैयार हमारी युवा पीढ़ी में भी कवि को उम्मीद नजर आती है। लगभग धोषणा करती हुई भाषा में वह कहता है-‘‘मित्रों! अभी सूखी नहीं है उम्मीद की नदी/अभी बाकी हैं बहुत से लोगों में प्रतिरोध जैसी आदतें/अभी लोग इतने विवेक शून्य नहीं हुए हैं/कि जान न सकें/कि तमाम शक्ति के बावजूद/अंतिम शक्ति नहीं है अमेरिका/अमेरिका पर भारी पड़ेगी/ मनुष्यता की जिजीविषा’’। मनुष्य में छिपी अप्रतिहत जिजीविषा राजनीतिक प्रतिरोध रचने का माध्यम बनती है। कवि की प्रतिरोधी चेतना को इसी रूप में जगह जगह व्याप्त देखा जा सकता है।
संग्रह की कविताएं परिवारी सम्बन्धों के प्रति लगातार घटती हुई हमारी आसक्ति को बार बार उघाड़ती हैं। रिश्तों का क्षरण आज का दुर्निवार सच है। इस क्षरण को लेकर इन कविताओं में बार बार चिंता व्यक्त की गई हेै-‘‘किसी भी समय में/जिन रिश्तों को होना चाहिए पानीदार/और पानी की तरह पारदर्शी/ वे अब काठ की तरह हैं/........कोई माने या न माने/पर बिजली की तरह गिरता हुआ यही सत्य है हमारे समय का/मृत्यु जितना सत्य।’’ इस ‘मृत्यु जितना सत्य’ के अंधेरे में आदमियों से भरा हुआ घर भी खोया खोया सा रहता है-‘‘अब बहुत बहुत दिनों में/ कभी कभी भरता है पूरा घर/और कभी जब भर जाता है/तब भी लोग न जाने क्यो खोये खोये से रहते हैं।’’
यह बात बार बार दुहराने की जरूरत है कि इस संग्रह की कविताओं का राजनीतिक बोध सामाजिक और नैतिक संवेदना से अनुप्राणित है। यहां विचारों का प्रतिबद्ध आग्रह नहीं है।ये कविताएं राजनीतिक प्रश्नों को भी जीवन के नैतिक प्रश्नों के दायरे में उठाती है और किसी राजनीतिक अवधारणा को दुहराने की बजाय राजनीतिक दायरों में बार बार दुहराए जाने वाले विचारों को नैतिकता के तकाजे से समझने की कोशिश करती हैं। राजनीतिक अवधारणाओं को लेकर निरंतर एक नैतिक बहस इन कविताओं की निजी विशेषता है। एक कविता मंें अपने आप से बहस करते हुए कवि पूछता है कि ‘‘ जीवन एक कोने से दूसरे कोने तक/कैसे हो सकता है समतल/या उबड़ खाबड़ ही/कोई भी प्रतिमान कैसे हो सकता है स्थायी/या कोई भी भाव कैसे हो सकता है सबमें/एक ही तरह से।‘‘ जाहिरा तौर पर यह समानता के प्रचलित सिद्धान्त पर एक टिप्पणी है जिसे हमारी समकालीन कविता का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपना वैचारिक प्रतिमान मान बैठा है। लेकिन जितेन्द्र नहीं मानते हेैं, क्योकि यह प्रतिमान प्राकृतिक न्याय अथवा मनुष्य के स्वभाव के अनुरूप नहीं है -‘‘इस दुनिया में सम्भव नहीं भावों की एक रूपता/कुछ कम अधिक होता ही रहता है इसमें/वैसे भी चाहत को सिद्ध नहीं किया जा सकता प्रमेंय की तरह’’। जितेन्द्र जीवन के किसी भी आयाम को प्रमेय की तरह सिद्ध करने के खिलाफ हैं। मनुष्यता-बोध उनकी काव्य-दृष्टि में इस गहराई तक न्यस्त है कि वे हर उस मान्यता को, जो किसी स्थूल नियम से बंधा होता है, मानने से इनकार करते हैं। स्वयं अपने विवेक से अर्जित जितेन्द्र की यह काव्य-दृष्टि उनके पर्यवेक्षण को तीब्र और यथार्थपरक बनाती है। उदारीकरण के चकाचौंध में हार जीत की बाजी का खेल जितेन्द्र की विवेकशीलता को पराजित नहीं कर पाता और वे यह कहने का साहस कर पाते हैं कि- ‘‘जीतने के प्रतिमान बदल भी सकते हैं कभी/कभी बदल सकते हैं चलने के भी मेयार/इसलिए किसी सच को मान लेना स्थाई सच/समय की नदी में नहाने से बचने का मार्ग तलाशना है।’’ लेकिन ऐसा भी नहीं कि जितेन्द्र समानता के सिद्धान्त या स्वीकृत प्रतिमानों का हर हाल में विरोध ही करते हैं। समानता के प्रश्न को जब वे नैतिक नजरिये से, मनुष्य की आकांक्षा और स्वप्न के धरातल पर उठाते हैं तो अस्वाभाविक सा दिखने वाला समानता का वही राजनीतिक सिद्धान्त नैतिकता के आधार पर सम्भव और उचित जान पड़ने लगता है और इस तरह एक राजनीतिक विचार नैतिक विचार के दायरे में आकर औचित्य प्राप्त कर लेता है-‘‘ फिर भी इस इच्छा को कौन कहेगा बेमतलब/कि चीजांे का समान वितरण होना चाहिए/मनुष्य को मनुष्य ही समझा जाना चाहिए’’। जितेन्द्र की कविता प्रमाणित करना चाहती है कि मनुष्यता के नैतिक धरातल पर सिद्ध होकर ही समानता का राजनीतिक सिद्धांत हमारी चेतना को गतिशील बना सकता है। वे राजनीतिक विचारों को मनुष्य-मन की स्वाभाविक समझ में शामिल होते देखना चाहते हैं। इसलिए उनके यहां एकतरफापन और आग्रह नहीं है। उनकी कविता जीवन के सवालों को सजीव द्वंद्वों में हल होते देखना चाहती है।
व्यौरों में छिपी काव्य-ध्वनियां जितेन्द्र की कविता की ताकत हैं। वाक्यों दर वाक्यों में गंुथा सीधा-सादा वर्णन-संयोजन कविता की संवेदना को अनुभूति के जिस अनुरोध तक ले जाता है वहां पाठक की चेतना देर तक स्पंदित होती रहती है। इन कविताओं में जीवन का सच कुछ इस तरह घुला होता है कि उसे किसी विचार या वस्तु के ठीहे पर विवेचित करने का कोई भी आग्रह बेमानी लगने लगता है। ‘तेरह वर्ष बाद जेएनयू में एक दिन फिर’ ‘सरकार की नजर’ ‘अजिताभ बाबू’ ‘पुकार’,‘कायांतरण’ और ‘परवीन बाबी’ सरीखी कविताएं आख्यानात्मक विवरणों के आवरण में, चरित्रों या स्थितियों के बहाने से अपना काव्यात्मक प्राप्तव्य हासिल करती हैं। यह प्राप्तव्य कभी‘एक दूसरे को अपलक डबडबाई आंखों से निहारने’ जैसी क्रिया में हासिल हो सकता है तो कभी एक औरत के, सिहरन पैदा करने वाले इस बयान में कि -‘‘उनतीस की उमर में/ तीन तीन बच्चों की उंगलियां थामे/खड़ी हूं चौराहे पर/न इस पार कोई/ न उस पार’’। कईबार इन कविताओं की कुछ पंक्तियों में अनुगुंजित ध्वनियां दूर तक हमारा पीछा करते हुए हमें हमारे दिलों के एकांत में छोड़ आती हैं-‘‘अब भी मिलते हैं/ तो धीरे से चली आती है हमारे मध्य/कमरा नंम्बर चौदह की ऊष्मा/जहां हमने सीखी थी/दूसरे को ‘स्पेस’ देने की कला/जहां हमने जाना था/अन्य को महत्व देने का महत्व ’’ इन पंक्तियों को संदर्भ से जोड़ कर पढ़ें तो ममेतर से जुड़ने का अकथनीय आनन्द हमारी संवेदन तंत्रिकाओं में देर तक बजता रहता है।
कहा जा सकता है कि स्त्री और दलित जीवन समकालीन हिन्दी कविता की संवेदनशीलता का बैरोमीटर है। स्त्री की जीवन दशाओं पर हिन्दी में बेशुमार कविताएं लिखी गई हैं। जितेन्द्र की विरलता इस बात में है कि उनकी कविता घरेलू जीवन की पारम्परिक त्रासदियों के भीतर घुट रही स़्ि़त्रयों को अपना उपजीव्य बनाती है। यह वह स्त्री है ‘‘जिसकी उम्र का अधिकांश/आंसुओं से भीगे आंचल को सुखाने में बीता है।’’ या जो ‘‘ अनादि काल से पी रहीं हैं अपना खारापन/बदल रही है/ आंखों के नमक को चेहरे के नमक में ’’ या ‘‘जिसे बांध दिया गया है अनजान खूंटे से/बिना यह देखे/ कि कितना दम है उसमें/’’ पारम्परिक खूटों से बंधी ये वे स्त्रियां हैं जो अपने पति के ‘होने’ से अपना ‘होना’ प्रमाणित कर पाती हैं। पति के अस्तित्व से अस्तित्वमान होने की सामाजिक बिडम्बना ढोती हुई ये स़्ित्रयां सिंदूर में अपने जीवन का अर्थ तलासती जीवन गुजार देती हैं। कवि कहता है कि ‘‘ मित्रों,पहले तो नहीं था पर/ अब विश्वास हो गया है मुझे/कि सिंदूर भय है स्त्री का’’। कवि को खूब पता है कि सिंदूर का भय ढोती हुई स्त्रियों के संदर्भ में स्त्रीमुक्ति के सैद्धान्तिक विमर्शो की बात करना हास्यास्पद होगा। इसलिए सीधा सा मानवीय प्रश्न उठाते हैं और परम्परागत पैतृक समाज में ही इन स्त्रियों के लिए बेहतर स्पेस की अपेक्षा करते हैं-‘‘ सोचता हूं/जो डर अनादि काल से/ घुला हुआ है/रक्त मज्जा विवेक में/वह कैसे निकलेगा।’’
इस संग्रह में ‘लोकतंत्र में लोक कलाकार’, ‘प्रधानमंत्री का दुख’,और ‘लौटना किस वनज की क्रिया है’ सरीखी कविताएं भी है। इन कविताओं का वजन हिन्दी कविता को एक नया फलक देता है। जितेन्द्र विवेकपूर्ण मनुष्यता के आकांक्षी कवि हैं और यह आकांक्षा इन कविताओं में जगह जगह देखी जा सकती है। आशा की जा सकती है कि यह संग्रह हिन्दी कविता को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करेगा।
समीक्ष्य संग्रह:ः ‘कायान्तरण’
कवि: जितेन्द्र श्रीवास्तव
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