कपिल देव

कपिल देव
चित्र

Monday, February 8, 2010

गोरख को याद करते हुए

गोरख पाण्डेय की मृत्यु के ठीक बीस वर्ष वाद, उनके परिजनों ने उनके पैतृक गांव पंडित का मुडेरा, जिला कुशीनगर में अपने ही घर प्रांगण में उन्हें समारोह पूर्वक याद किया। यह स्मृति समारोह, गोरख के नाम पर स्थापित गोरख पाण्डेय स्मृति न्यास देवरिया के सहयोग से आयोजित किया गया था। समारोह में ,गोरख स्मृति न्यास के सभी साथियों, ग्रामीणों तथा आसपास की जनता के अलावा इलाहाबाद से जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण, गोरखपुर से मनोज सिंह, अशोक चैधरी, देवेन्द्र आर्य,रामू,कपिलदेव आदि सहित तमाम लोग उपस्थित थे। गोरख पाण्डेय के बाल-मित्रों, गा्रम वासियों, परिजनों तथा क्रांतिचेता युवाओं सहित लगभग 50 लोगों नें उनसे जुड़ी अपनी स्मृतियों को ताजा किया। गोरख के स्मृति-दिवस पर सबने उनका विशद मूल्यांकन किए जाने की आवश्यकता महसूस की। यहां गोरख को कुद पंक्तियों में याद करने की मैने विनम्र चेष्टा की है। जाहिर है, यह उनका मूल्यांकन नहीं हैं। लेकिन यदि इन विन्दुओं को आधार बनाया जाय तो उनके सम्यक मूल्यांकन की एक रूप रेखा तो खींची ही जा सकती है-- कपिलदेव

मोटे तौर पर सब यही जानते हैं कि गोरख की प्रतिबद्धता माक्र्सवाद के प्रति थी। पार्टी के प्रति थी या जनता को शोषण से मुक्त करने का रास्ता दिखाने वाले सिद्धान्तों के प्रति थी। लेकिन मै कहना चाहूंगा कि सबसे पहले उनकी प्रतिबद्धता खुद अपनी संवेदना के प्रति थी। उनकी संवेदना का विस्तार इतना व्यापक और गहराई इतनी अगाध थी कि वे उसके साथ चतुर संासारिक किस्म का व्यवहार स्वयं भी नहीं कर सकते थे। दूसरे शब्दों में, उनकी संवेदना ही उनके समूचे व्यक्तित्व की नियामक थी। अपनी संवेदना का नियमन-संचालन वे नहीं, बल्कि इसके उलट उनकी संवेदना ही उनका नियमन-संचालन करती थी। कदाचित यही कारण है कि विचारधारा,संगठन या रचनाकार- जिस भी रूप में हम उनकेा जानते हैं, उनका वह रूप अगर अन्य विचारकों, संगठन कर्ताओं या रचनाकारों से अलग दिखता है तो इसीलिए कि वे पूरी तरह अपनी आंतरिक संवेदनशीलता से परिचालित व्यक्ति थे। अन्यों की तरह वे क्रांतिकारी विचारों के स्थूल प्रचारक या प्रतिबद्धता के नाम पर किसी पाटीर्, दल या विचारधारा द्वारा बताए नियमों का पालन करने वाले ऐसे आतुर क्रांतिकारी न थे जो सिर्फ अपनी निजी छाप या पहचान के लिए किसी संगठन के विचारों का बाहन बन कर रहना स्वीकार कर लेते हैं। इसके विपरीत गोरख एक ऐसे राजनीतिकर्मी,संस्कृतिकर्मी या विचारक थे जो अपनी आंतरिक संवेदनशीलता,, गहरी करूणा और स्वप्नशीलता के कारण इस धारा में स्वाभाविक तौर पर आते हैं। गोरख अगर मार्कसवाद के अनुयायी थे तो इसलिए कि माक्र्सवाद की बुनियादी विचारधारा उनकी संवेदना में पहले से मौजूद थी। यही कारण है कि वे माक्र्सवादी विचारों का बात बात में उल्लेख कर अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण देते रहने वाले बुद्धिजीवी न थे। माक्र्सवाद उनकी संवेदनशीलता मे नये तरह से प्रसार पाता था। जनता की मुक्ति उनके जीवन का केन्द्रीय स्वप्न था। इसलिए नहीं कि यह उनकी पार्टी का एजेण्डा था। बल्कि इसलिए कि यही उनकी संवेदना का एजेण्डा भी था। जनता के दुखेंा के प्रति स्वभावतः ही वे करूणा से ओतप््रोात रहते थे। इसलिए वे जहां और जिस काम में लगे हुए थे, वही और एक मात्र वही उनका रास्ता था। यह करूणा ही उन्हें सामाजिक राजनीतिक या संास्कृतिक बदलाव की गहन वैचारिकता में प्रवेश की प्रेरणा देती थी। उन्होंने माक्र्सवाद को सिर्फ पढ़ा ही नहीं, हृदयस्थ किया था। यों ही नहीं है कि वे अपने विचारों में, भाषणों में और लेखोें में किसी एकेडमिक सिद्धान्तकार या पेशेवर राजनीतिक या अमूर्त आदर्शवादी साहित्यकार की तरह अपने को अभिव्यक्त नहीं करते थे। उनकी अभिव्यक्ति की दिशा मूलगामी थी और उनकी सारी वैचारिक गतियों में जनता के प्रति गहरी संवेदना को महसूस किया जा सकता था।
गेारख निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत सत्ता का विरोध करने वाले सच्चे विचारक थे। यदि हमारे कथन को बहुत दूर तक न घसीटा जाय और सही संदर्भ में समझा जाय तो मैं कहना चाहूंगा कि गोरख कुछ मायनों में गांधी के क्रातिकारी अवतार थे। वे अगर निजी सम्पत्ति वाले समाज के विरूद्ध थे तो यह उनके आचरण और जीवन में भी दिखता था। और जाहिरा तौर पर, यह दिखावा नहीं था। जितना न्यूनतम में गोरख रहते थे, उतने न्यूनतम में रहने का साहस उनके समानधर्मा क्रांतिकारी नहीं कर सकते थे। उनकी संवेदना की उठान इतनी ऊंची, प्राकृतिक और स्वाभाविक थी कि उसे लेकर उनके समानधर्मा मित्र प्रायः चिंतित हो जाया करते थे। गोरख नें अपनी संवेदना और सांसारिकता में तालमेल बिठाने की शायद ही कभी कोशिश की। वे अगर किसी चीज का सबसे अधिक आदर करते थे, तो वह उनकी अपनी ही संवेदना थी।
गेारख जिस काल में जन्मे थे, वह निजी सम्पत्ति की लालच में डूब जाने का उत्कर्ष काल था। जो कामरेड या कवि कलाकार इस बे-शर्म लालच में डूबने उतराने से परहेज करते थे उनमें भी, छिपे तौर पर ही सही, निजता का लोभ इतना प्रबल था कि वे इस या उस रास्ते से उसेे संतुष्ट करने का रास्ता निकाल ही लेते थे। लेकिन गोरख सामाजिक प्राथमिकताओं के बीच कभी भी खास अपने लिए थेाड़ी सी भी जगह बना लेने की फिक्र करते हुए नहीं दिखे। अगर कहीं उनके मन के किसी कोने में यह इच्छा जगी भी होगी तो उनकी सामाजिकता की संवेदना इतनी प्रबल और का्रंति का स्वप्न इतना असंदिग्ध था कि उसके सामने ऐसी तुच्छताएं गोरख के भीतर अधिक देर तक टिक भी नहीं सकती थीं। गोरख चाहते तो तमाम दूसरे क्रांति-सेवी विद्वानों की तरह,क्रांतिकारी कार्यकर्ता का दायित्व निभाते हुए, एक बड़ा कवि, आलोचक, निबंधकार या कथाकार बन सकते थे। साहित्य और विचार की दुनिया में वे जिस भी मुकाम को पाना चाहते हासिल कर सकते थे। उन्होंने कहानियां भी लिखीं, और कविताएं भी। विचारपरक आलेख के मामले में उनकी प्रतिभा निर्विवाद थी। अपने समय की पत्रिकाओं द्वारा चलाई बहसों में उनकी सतर्क हिस्सेदारी को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि चाहते तो वे समर्थ आलोचक भी बन सकते थे। लेकिन यह सब करना उनके अभियान का हिस्सा था। निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति या जीवनोपरांत अपने नाम से कुछ बौद्धिक सम्पदा छोड़ जाना उनके जीवन का लक्ष्य न था। वे उनमें से नहीं थे, जो दिमाग में आये हुए हर विचार, वाक्य,शब्द और यहां तक कि अक्षर तक को रचना रूप में ढाल कर अपनी स्थाई निधि बना लेने के लिए परेशान रहते हैं। जिन्हें हर साल अपनी अस्मिता को प्रमाणित करने के लिए किसी न किसी किताब या करतब के साथ देश और समाज के मंच पर हाजिर होना जरूरी लगता है। बहती हुई धारा में अपनी जगह बनाने को व्यग्र उपलब्धि-प्रेमी ऐसे रचनाकारों- लेखकों की जमात से अलग रहते हुए, गोरख संस्कृति और विचार की ऐसी दुनिया गढ़ना चाहते थे जिसमें शोषण के विरूद्ध संधर्ष की चेतना से सम्पन्न पीढ़ियां तैयार होती रहें। किसी किताबी रचना से अधिक वे उस मनुष्य की रचना करना चाहते थे जो एक नये समाज और नये संसार की रचना के प्रति संकल्प बद्ध होगा।
गोरख ने कम लिखा है। जो लिखा ह,ै कठिन संधर्षाो के बीच लिखा है। अपने हिरावल दस्तों के सपनों को स्पष्ट और सक्रिय करने के लिए लिखा है। यद्यपि उन्होंने कागज पर लिखने से अधिक युवा मनों में सपनों की इबारत लिखना अपने जीवन का ध्येय बनाया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें संघर्ष के व्यापक अभियान में साहित्य लेखन का मोल मालूम नहीं था। वे स्वयं भारतीय और पश्चिमी साहित्य और चिंतन परम्परा के गहरे जानकार थे। वे सामाजिक बदलाव के मुहिम में अपने समकालीन साहित्यकारों की अहमियत को भी जानते थे। साहित्य-कर्म उनकी निगाह में आंदोलन का ही एक अनिवार्य अंग था। इसलिए वे व्यक्तियों के स्तर पर घटित हो रहे साहित्यिक-रचनात्मक प्रयत्नों को एक निश्चित लक्ष्य से जोड़ देने के लिए सामूहिक विवेक की रचना करने की जरूरत भी महसूस करते थे। वे जानते थे कि किसी ऐतिहासिक लक्ष्य का संधान अकेले का काम नहीं है। अतः उन्हेांनें जसम के रूप में जिस वैचारिक-सांस्कृतिक संगठन की रचना करने की पहल की,। उनकी निर्वैयक्तिक रचनाशीलता की यह ऐसी विरल कृति है जिसकी प्रेरणा से मुक्तिकामी विचारों की अजस्त्र परम्परा हमेशा ही आगे बढ़ती रहेगी।
जसम यदि किसी भी रूप में अपने होने को गोरख के सपनों से जोड़ कर देखना चाहता है तो उसे उनकी संवेदना के गहरे आशयों को अपना पाथेय बनाना होगा।
कपिलदेव

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