कपिल देव

कपिल देव
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Wednesday, May 6, 2009

यानी मैं

सिंदबाद के समुद्री डाकुओं
और मुनाफाखोर मनुष्यताओं के रक्तपाती इतिहास के
सदियों पुराने
जर्जर पृष्ठों से छिटक कर
इक्कीसवीं सदी की बिलासी वैचारिकता में
नख-दंत की तरह धंसा हुआ
मैं एक अनवरत इनकार हूं-
सृष्टि का आदि अव्यय
जिसे
नष्ट करने के अभियानों का इतिहास ही
सभ्यताओं का इतिहास है

मैं एक औजार हूं
पिछली सदी के बंद पड़े
कारखानेा के
दरवाजों से झांकता हुआ

तोरण-द्वार की तरह सजने वाली कविता के खिलाफ
उबलता हुआ एक प्रतिवाद हूं मैं
जो
समझौता परस्त
चालाक और दुनियादार हाथों का रूमाल बनने से
इनकार करता है।

मैं अपने समय की सुचिक्कणता पर थूकता हूं
अपने प्यारे प्यारे चूजों की चोंच में
दाना डालते ‘थिंक-टैंकों’ की आंखो का कांइयापन
मेरे रक्तचाप को बढ़ा देता है
मैं अपने ही ‘पन’ के साथ जीना चाहता हूं।

मुझे जन्म देने वाली सदी को लेकर बहस छेड़ दी गई है
अफवाह है कि मैं
मनुष्यता की कोख में अनादि काल से छिपा
एक अदृश्य विकार हूं

मैं इतिहास का अपवाद हूं
जिसे
अवांछित घोषित करने के लिए
संविधान में संशोधन की घोषणा की जा चुकी है

गुस्सा और असहमति और प्रश्नाकुलता और असंतोष का
उबलता हुआ ज्वार हूं मैं
एक अचरज
एक कलछौंह-
शीत-ताप नियंत्रित इक्कीसवीं सदी के समृद्ध गालों पर।

मेरे बध का दिन मुकर्रर किया जा रहा है
प्रचारित कर दिया गया है कि
मेरी खदबदाहट
आधुनिकता की डेªनेज से गिरता हुआ बदबूदार झाग है

बुद्धिजीवियों के बीच मैं एक तकलीफ देह एजेंडा हूं
एक असुविधा
अर्थात्
संस्कृति के जननायकों की पीठ पर
मची खुजली

मैं
पुरखों के अधबने सपनों को
बहुराष्ट्रीय राजमार्गों पर
फेक कर भागती हुई
भविष्य-भीत पीढ़ी के अपराधों का
चश्मदीद गवाह हूं

साक्षी हूं मैं
उगती हुई इस सदी का
जिसका वृहस्पति
हत्यारों द्वारा आयोजित रात्रि-भोज में
सुविधाओं की चैपड़ पर हमारी निष्ठाओं का
दांव लगा रहा है
और लाल सलाम की गद्दी पर बैठा हुआ
बिना चेहरे वाला कामरेड
इक्कीसवीं सदी के नराधमों की रहनुमाई में
हंसने और
खामोश रहने का प्राणायाम सीख रहा है

मैं एक कटघरा हूं, जिसमें खड़ी हो कर
यह सदी
अपनी सफाई में
झूठ की प्रौद्योगिकी का हलफनामा दायर कर रही है

पता किया जा रहा है
मेरे बारे में
पूछा जा रहा है दिगन्तों से कि
मेरा गुस्सा
ग्लात्सनोत्स के किस अध्याय के किस पृष्ठ पर रह गई
प्रूफ की अशुद्धि का खामियाजा है

जेड श्रेणी की सुरक्षा में सपनों का साइरन बजाती
हहराती हुई इस इक्कीसवीं सदी के
रम हल्लेमे कब
और
कहां से आ गया यह दनदनाता हुआ इनकार
यानी मैं .............................. 5.5.09

1 comment:


  1. श्रीमान जी कहाँ खो जाते हैं ? आज आपका ध्यान आया, लिंक भूल गया था, 3 घँटे गूगल सर्च में लगाये और आप हाथ आये !
    " मैं अपने ही ‘पन’ के साथ जीना चाहता हूं।

    मुझे जन्म देने वाली सदी को लेकर बहस छेड़ दी गई है
    अफवाह है कि मैं
    मनुष्यता की कोख में अनादि काल से छिपा
    एक अदृश्य विकार हूं

    मैं इतिहास का अपवाद हूं
    जिसे
    अवांछित घोषित करने के लिए
    संविधान में संशोधन की घोषणा की जा चुकी है

    गुस्सा और असहमति और प्रश्नाकुलता और असंतोष का
    उबलता हुआ ज्वार हूं मैं
    एक अचरज
    एक कलछौंह-
    शीत-ताप नियंत्रित इक्कीसवीं सदी के समृद्ध गालों पर।"
    भला ऎसी लाइनें लिखने का साहस रखने वाले कित्ते जन हैं, ब्लागजगत में..
    मेरा आग्रह है, आप महीने में दो रचनायें अवश्य दें, और यह कठिन नहीं है किसी विचारशील रचनाधर्मी के लिये ।
    सादर !

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