( ‘तहलका डाटकाम’ पर एक कस्बाई शिक्षिका का व्याकुल विचार पढ़ कर )
माना कि
अम्मा की दी हुई
‘स्त्री-सुबोधिनी’ की जिल्द उखड़ गई है
बिखर गए हैं पन्ने
पृष्ठों के क्रम
उलट पुलट गए हैं
मगर
मत भूलो
अनुजा रस्तोगी
कि
अम्मा की नसीहतें
जिन्दा हैं तुम्हारी स्त्रियों के भीतर
अम्मा के मरने के बाद भी
चैदहो भुवन नाप लेने को व्याकुल
बुश का उठा हुआ एक पांव (दायां कि बायां)
जिसकी छाया में
तुम लहलह हो रही हो
क्या जानती हो कि
दरअसल वह
स्त्री-आजादी के नाम पर
तुम्हारी जंघाओं के बीच
संस्कृति का ‘ट्रेड टावर’ खड़ा करने का
खुल्ला अभियान है
तुम्हारी देहों की भौगोलिक जांच का ठेका
हो चुका है और
लिया जा चुका है
तुम्हारे अंगो का ब्लूप्रिंट
चालू की जा चुकी है एडवांस बुकिंग
दर्ज हो चुका है रेस्त्रां के मेनू में
तुम्हारा पदार्थीय भाव ?
अब
क्या है जो तुम्हारा अपना है-
इस वाणिज्यिक विमर्श से स्वतंत्र
जिसे बख्श दिया गया है
सिर्फ तुम्हारे लिए,- कि तुम स्त्री हो
जीती जागती मनुष्य
अनुजा रस्तोगी!
क्या
कभी सोचा है इस तरह भी
सोचते हुए अपनी
आजादी के बारे में ?
क्या तुम जानती हो कि
इक्कीसवीं सदी की इस ब्रह्मबेला में
दूर से
स्वर्णमृग-सा दिखता
अमरीकी ट्रेड सेंेटर
तुम्हारे स्त्री-विमर्श का मारीच है
या
‘यौन-मुक्ति’ की तुम्हारी मांग
पुरूष-मल्टीनेशनल के गुप्त किसी प्रस्ताव से
जान-बूझ कर लीक किया गया
रणनीतिक एजेण्डा है?
क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं
कि
‘खारी बावली’ का महातम राव ‘बुकसेलर’
दिवालिया हो गया बहुत पहले--
उन्नीस सौ नवासी में ही ?
अब
उसके वंशजों नें
खोल लिये हैं
शानदार-
डिपार्टमेंटल स्टोर्स
और
बिठा दिए हैं सेल्स गल्र्स
जहां कभी बैठता था महातमराव
किताबों-भरी आलमारियों की जगह
सजा दिए गए हैं कण्डोमों और कामौषधियों के रंगीन पैकेट्स
हटा दी गई हैं
लक्ष्मी और
दुर्गा की धूमाच्छादित मृण्मूर्तियां और
स्थापित कर दिए गए हैं
अपूर आकांक्षाओं की फल-दात्री देवियों के
कामुक उभारों वाले पारदर्शी ‘एंटीक टेम्पिल’
अर्थात्
स्फटिक भव्यताओं से सज्जित
आध्यामिकता का अश्लील-बाजार?
समय के जिस मोड़ पर
खड़ा है यह डिपार्टमेंटल स्टोर्स
वहीं कहीं
जन्म ले रहा है
कोई नया कस्बा
कोई शहर... कोई गांव... कोई ‘डाटकाम’....
यानी कि बुश का मल्टीनेशनल
और
क्या जानती हो अनुजा रस्तोगी
कि
कोई कस्बाई स्त्री
यानी
स्वर्णमृग के लिए व्याकुल लोलुपता
जो
याचना कर रही है
किसी ‘वेबसाइट’ पर
बिलापती हुई
कि
क्यों नहीं मिलनी चाहिए यौनमुक्ति
क्यों पढ़ते रहना चाहिए
सत्यवान-सावित्री की दंतकथा
जन्मान्तर तक
वह कोई और नहीं
तुम हो-
मर्दवादी एजेण्डे से छिटकी
एक बेचारी इबारत ?
‘वेबसाइट’ के वर्चुअल पृष्ठों पर
दहाड़ती हुई
अनुजा रस्तोगी,
तुम्हें सुन रही हैंं
परम्पराएं
सुन रहा है
कार्पोरेट जगत का ‘बिलग्रेट’
यानी कौन नहीं सुन रहा है
मगर सोचो कि
तुम्हारी तल्ख कामनाओं का बेसब्र उद्घोष
इतना दयनीय क्यों है ?
जैसे किसी विवश स्त्री की बलात्कृत आवाज
जैसे
टपक रहे हों कई कई जन्मों के आंसू
मनुस्मृति के पन्नों से
जैसे उठ रहा हो कोई
करूण विलाप ?
गौर से देखो-
ये इतने सारे ई-मेल
‘फी-मेल’ नहीं, ‘ई -मेल’ -यानी
सहमतियों में उठे
कोई बहत्तर जोड़ी मर्द हाथ
जो हवा में बिछ गए हैं उत्सुक-
तुम्हारी सहायतार्थ
उनमें किसी स्त्री का आधा-हाथ भी नहीं है
यानी अकेली हो तुम
यहां इस वेबवसाइट-विमर्श में
इस तरह
अनुजा रस्तोगी
सोचो कि
कस्बाई स्त्री की
बिफल आवाज
बचा ली गई है जिन हाथों
मर्दवादी साइटों के समुद्र में
डूब जाने से,
आखिर क्यों
वे मर्दो के ही हाथ हैं-
मर्दवादी हाथ ?
सुनो- यह आवाज किसी
ह्वाइट हाउस से नहीं
यहीं कहीं तुम्हारे ही पहलू से
आ रही है शायद
तुम्हारे भीतर से-
पूछता है कोई तुमसे ही बार-बार
कि
वेबसाइट की स्त्री-
अनुजा रस्तोगी,
तुम
अकेली क्यों हो
इस प्रश्न-प्रहर में?
कहां हैं वे भारतीय-स्त्रियां
जिन्हें चाहिए यौनमुक्ति
तुम्हारी ही तरह ?
जबकि अमरीका में पहले ही घोषित किया जा चुका है कि
रैम्प पर कैटवाक
स्त्री की आजादी का सबसे भरोसेमंद उत्सव है?
यही वह विन्दु है
जहां स्त्री-विमर्श का पश्चिमी पाठ पीछे छूट जाता है
और हमारे विचारों के आर्य-‘आवत्र्त’ में
प्रवेश करता है
पुरूष की देख रेख में सतत जारी सनातन स्त्री-विमर्श
शुरू होता है
औपनिषदिक उद्धरणों, प्रमाणों,
संदर्भों ओर आख्यानों की अनन्त
गवाही का सिलसिला
प्रवेश करते हैं इन्द्र, वरूण, यक्ष
किन्नर, नाग
एक के बाद एक
पुराण-पुरूष की अदालत में
संहिताओं की प्राचीन जिल्द पर
हाथ रख कर खाई जाती हैं
सत्य-भाषण की कसमें
इतिहास-सत्यों की स्वस्तिक छाप कालीनों पर सजी
चारो पुरूषार्थो,वर्णो, आश्रमों और धर्म-धामों की चतुष्पदी
-चैकियों पर आसीन
दसावतार नैय्यायिकों की अदालत में
इतिहास की रूपहली गद्दी पर बैठा
न्याय-पुरूष
सुनाता है फैसला
कि
पुराण निर्दोष हैं
निर्दोष हैं स्मृतिकार
अतीत में कोई भी नहीं रहा सदोष
न दुष्यंत न अयोध्या न राम
इस तरह सम्पन्न होती है अदालती कार्यवाही
और सिद्ध कर दिया जाता है
मुक्ति’ का
पैाराणिक स्त्री-अर्थ
जो हकीकत में
हमारी संस्कृति का पुरूष-विमर्श है
अनुजा रस्तोगी
लड़ो तो इस
यक्ष-प्रश्न से
कि
कहां खड़ी हैं
तुम्हारी कस्बाई स्त्रियां ?
इतिहास द्वारा रचित वृत्तों से बाहर निकलने का
उनका हर अभियान
क्यों
पुरूष कंधो की खोज का नया पाखण्ड बन कर रह जाता है?
सोचो तो
इस कोण से कि
तुम्हारी स्त्रियां भारतीय हैं
लड़ना है तुम्हें
स्त्री-सुबोधिनी से
मां की नसीहतों की छाया से
निकालना है
उस डर और असुरक्षा और आश्वस्ति से
जिसके गौरव में डूबी हैं
सदियों से तुम्हारी स़्ित्रयां
पूछो अपनी स्त्रियों से ओैर पता करो
कि
वे इस समय बाल्मिीकि के किस काण्ड की
किस सीता के आंसू में पिघल रही हैं
रावण के गिनाए ‘आठ अवगुनों’ के किस चरण का भोग कर रही हैं
अपनी ही आर्त-चीख से घिरी अनुजा रस्तोगी तुम भी
बाहर निकलो
और
बाहर निकालो
अपनी स्त्रियों को
पुराण-पृष्ठों से
हो सके तो
सोचो यह भी कि
देहों की मल्टीनेशनल आजादी
का अमरीकी यथार्थ
तुम्हारा नहीं है
पता करो अनुजा रस्तोगी
कि
तुम्हारी कस्बाई स्त्रियां
क्यों
बांच रही हैं नई सदी के
गणपतिबप्पा मोरिया वाले कैलेण्डर में
प्रदोष ब्रत की विक्रमी तिथियां
आज भी
क्यों
सिल रही हैं स्त्री सुबोधिनी की फॅटी जिल्द
इंतजार कर रही हैं
किसी वात्स्यायन
किसी कृष्ण का
वेब साईट पर स्त्री मुक्ति का आर्तनाद करती
अनुजा रस्तोगी सोचो कि
आखिर क्या
जोड़ या घटा रही हैं
इसतरह
इस महादेश के
स्त्री-विमर्श में
रैम्प की तरफ निहारती तुम्हारी
कस्बाई स्त्रियां ? 17.04.09
कपिल देव
Wednesday, April 22, 2009
Friday, April 10, 2009
एक कर्मचारी का विदाई समारोह
चमक रहा है उसकी आंखों का
खालीपन
सेवाकाल के अंत पर आयोजित उत्सव में
बुलाया गया है
संगमरमरी सीढ़ियों
कालीनों बिछे गलियारों से
लकदक सुसज्जित सभ्य-सभागार में
लाया गया है
चकित चैधियायी आंखों से अपनी ही
देख रहा है वह
बधस्थल पर लाए गए बकरे-सा
होता हुआ अपना ही अभिनन्दन
अपने ही जीवन में
पहली और अंतिम बार
इस प्रकार!
दौड़ती हुई हाफती सी जिंदगी की दौड़ से
बाहर कर दिया गया है उसे आज ही दिसम्बर की इस
इकतीसवीं तारीख को
‘आफटरनून से’
कर दिया गया है रिटायर
सेवा काल का यह अंतिम प्रहर
प्रारम्भ है नए दुःस्वप्न का
खोल दी गई है लगाम
निकाल लिए गए हैं खुरों में ठुके नाल
और हांक दिया गया है चटियल रेगिस्तान में
आजाद कर दिया गया है
देस की बघ्घी में नधा यह घोड़ा
जीवन के उत्तर-काल में
निहत्था बना कर छोड़ दिया गया है
जबकि युद्ध अभी अधूरा है
और उसके पखुरे ढीले पड़ गए हैं
ढीली पड़ गई है धमनियां
दुह उठी हैं
गुजिस्ता पैंतीस वर्षो तक वफादारी
ईमानदारी की तवारीख लिखते लिखते
जर्जर हो उठे हैं
उसकी जिन्दगी के पन्ने
बिला गया उसका जीवन
‘सर्विस पुस्तिका’ और गोपनीय रिपोटों
का बेदाग स्वाभिमान ढोते ढोते!
विदाई के दुख से
प्रशन्न होने का
अपनी ही रची दुनिया से बेगाना
कर दिए जाने का
कैसा
कातर क्षण है
यह अपने ही जीवन को
अमिट इतिहास में बदलता हुआ
देखने का ?
बखान के चैतरफा शोर से आक्रांत उसे
जिस समादृत आसन पर
बैठाया गया है--सर्वोच्च ईश्वर के प्रभावलय के
ठीक स्पर्श-विन्दु पर
सिंह के अयाल के इतने करीब होने के सुख और डर के बीच
आत्म-चकित है वह
अनघटा अटपटा अनुभव यह रोमांचक कितना
कातर बना रहा है उसे
कितना कृतज्ञ !
पैंतीस वर्षों का चिर प्रतीक्षित
पुरस्कार यह मौखिक
महोच्चार !
फहराई जा रही है
उसकी कीर्ति की पताका
खोखले शब्दों के फूल झर रहे हैं सभाकक्ष में
भरा जा रहा है भावनाओं का अकिंचन कटोरा
सद्वचनों के चिल्लर सिक्कों से
उसके जीवन में पहली और
अंतिम बार
मैं देख रहा था कि
उसके भीतर की उदासी की
धूसर रेत को भिगोती
बेगानी प्रशंसाओे की बौछारों नें
उसे असुविधा में डाल दिया है
रोना चाहता है जार जार
इस बहिष्कार-समारोह में
अपने अगोरते उदास बच्चों का आंसू
जबकि उसके पास रूमाल भी नहीं है
भीगते शब्दों से सराबोर
फूलों-मालाओं लदे इस समारोह से
उसने अलग कर लिया है अपनी आत्मा को
हो गया है अनात्म
मारण उच्चाटन मंत्रों से भरे हुए
अभिनन्दन-भाषणों से
डरी उसकी आत्मा
उठ कर
अपने बाल बच्चों में चली गई है
खालीपन
सेवाकाल के अंत पर आयोजित उत्सव में
बुलाया गया है
संगमरमरी सीढ़ियों
कालीनों बिछे गलियारों से
लकदक सुसज्जित सभ्य-सभागार में
लाया गया है
चकित चैधियायी आंखों से अपनी ही
देख रहा है वह
बधस्थल पर लाए गए बकरे-सा
होता हुआ अपना ही अभिनन्दन
अपने ही जीवन में
पहली और अंतिम बार
इस प्रकार!
दौड़ती हुई हाफती सी जिंदगी की दौड़ से
बाहर कर दिया गया है उसे आज ही दिसम्बर की इस
इकतीसवीं तारीख को
‘आफटरनून से’
कर दिया गया है रिटायर
सेवा काल का यह अंतिम प्रहर
प्रारम्भ है नए दुःस्वप्न का
खोल दी गई है लगाम
निकाल लिए गए हैं खुरों में ठुके नाल
और हांक दिया गया है चटियल रेगिस्तान में
आजाद कर दिया गया है
देस की बघ्घी में नधा यह घोड़ा
जीवन के उत्तर-काल में
निहत्था बना कर छोड़ दिया गया है
जबकि युद्ध अभी अधूरा है
और उसके पखुरे ढीले पड़ गए हैं
ढीली पड़ गई है धमनियां
दुह उठी हैं
गुजिस्ता पैंतीस वर्षो तक वफादारी
ईमानदारी की तवारीख लिखते लिखते
जर्जर हो उठे हैं
उसकी जिन्दगी के पन्ने
बिला गया उसका जीवन
‘सर्विस पुस्तिका’ और गोपनीय रिपोटों
का बेदाग स्वाभिमान ढोते ढोते!
विदाई के दुख से
प्रशन्न होने का
अपनी ही रची दुनिया से बेगाना
कर दिए जाने का
कैसा
कातर क्षण है
यह अपने ही जीवन को
अमिट इतिहास में बदलता हुआ
देखने का ?
बखान के चैतरफा शोर से आक्रांत उसे
जिस समादृत आसन पर
बैठाया गया है--सर्वोच्च ईश्वर के प्रभावलय के
ठीक स्पर्श-विन्दु पर
सिंह के अयाल के इतने करीब होने के सुख और डर के बीच
आत्म-चकित है वह
अनघटा अटपटा अनुभव यह रोमांचक कितना
कातर बना रहा है उसे
कितना कृतज्ञ !
पैंतीस वर्षों का चिर प्रतीक्षित
पुरस्कार यह मौखिक
महोच्चार !
फहराई जा रही है
उसकी कीर्ति की पताका
खोखले शब्दों के फूल झर रहे हैं सभाकक्ष में
भरा जा रहा है भावनाओं का अकिंचन कटोरा
सद्वचनों के चिल्लर सिक्कों से
उसके जीवन में पहली और
अंतिम बार
मैं देख रहा था कि
उसके भीतर की उदासी की
धूसर रेत को भिगोती
बेगानी प्रशंसाओे की बौछारों नें
उसे असुविधा में डाल दिया है
रोना चाहता है जार जार
इस बहिष्कार-समारोह में
अपने अगोरते उदास बच्चों का आंसू
जबकि उसके पास रूमाल भी नहीं है
भीगते शब्दों से सराबोर
फूलों-मालाओं लदे इस समारोह से
उसने अलग कर लिया है अपनी आत्मा को
हो गया है अनात्म
मारण उच्चाटन मंत्रों से भरे हुए
अभिनन्दन-भाषणों से
डरी उसकी आत्मा
उठ कर
अपने बाल बच्चों में चली गई है
समय जो सबका पिता है
कपिलदेव
यह समझाने का समय नहीं है
समझने का भी नहीं
यह
समझने और समझाने से बाहर निकल जाने का समय है
समय से बाहर
निकल जाने का समय
सूरज नें अपने घोड़ों को कार्यमुक्त कर दिया है
सुबह और शाम की दूरियां पूरी करता है अब
स्वचालित यान से
टापों का शोर अब नहीं सुनाई देता
घोड़ों का हिन-हिन
किसी मल्टीनेशनल कम्पनी
ने सौदा कर लिया है
घोड़ों की चर्वी निकाली जाएगी
सांपों का कृतृम जहर बनेगा
पिलाया जाएगा विष कन्याओं को
समय की धूपघड़ी
अब किसी सूरज का मुहताज नहीं
सूरज अब किसी धूप घड़ी के लिए नहीं उगता
डूबता भी नहीं किसी कन्या कुमारी के अंतरीप में
ठुक ठुक आवाजों के बीच
सुनाई देता समय
गायब कर दिया है किसी
अभियांत्रिक नें
घड़ी साजों की आंखों पर चिपका लेंस गिर गया है
समय की इक्कीसवीं तारीख के आस पास
जो उसके होने की आहट थी
सोचा जो, वह कहा नहीं
कहा वह नहीं,
जो सोचा
कहने और सोचने के बीच
फंसा है यह समय।
जिद ने तर्क को पीछे ठेल दिया है
वत्सलता को काठ मार गया है
भविष्य का ‘भय’
माताओं की कोख में
भ्रूणों को
इतिहास से आगे निकल जाने का ‘कैप्सूल कोर्स’ करा रहा है
अजन्मा वक्त कहता है--
नहीं, अब और नहीं
गर्भस्थ हूं तो क्या-
सवाल तो करूंगा मांगूगा पिताओं से
निश्चित-निश्चिंत उज्वल वर्तमान
धरती पर आने की
कीमत वसूलूंगा।
भविष्य और वर्तमान की संधि पर बैठा
विलाप कर रहा है
अबूढ़ा समय
बिला गए हैं उसके सपने
कट गई है डोर
कब कहां गिरेगा बूढ़ा समय
जो सबका पिता है,
खो गया है उसका प्रमाण-पत्र
पुरखों का दिया
10-4-09
यह समझाने का समय नहीं है
समझने का भी नहीं
यह
समझने और समझाने से बाहर निकल जाने का समय है
समय से बाहर
निकल जाने का समय
सूरज नें अपने घोड़ों को कार्यमुक्त कर दिया है
सुबह और शाम की दूरियां पूरी करता है अब
स्वचालित यान से
टापों का शोर अब नहीं सुनाई देता
घोड़ों का हिन-हिन
किसी मल्टीनेशनल कम्पनी
ने सौदा कर लिया है
घोड़ों की चर्वी निकाली जाएगी
सांपों का कृतृम जहर बनेगा
पिलाया जाएगा विष कन्याओं को
समय की धूपघड़ी
अब किसी सूरज का मुहताज नहीं
सूरज अब किसी धूप घड़ी के लिए नहीं उगता
डूबता भी नहीं किसी कन्या कुमारी के अंतरीप में
ठुक ठुक आवाजों के बीच
सुनाई देता समय
गायब कर दिया है किसी
अभियांत्रिक नें
घड़ी साजों की आंखों पर चिपका लेंस गिर गया है
समय की इक्कीसवीं तारीख के आस पास
जो उसके होने की आहट थी
सोचा जो, वह कहा नहीं
कहा वह नहीं,
जो सोचा
कहने और सोचने के बीच
फंसा है यह समय।
जिद ने तर्क को पीछे ठेल दिया है
वत्सलता को काठ मार गया है
भविष्य का ‘भय’
माताओं की कोख में
भ्रूणों को
इतिहास से आगे निकल जाने का ‘कैप्सूल कोर्स’ करा रहा है
अजन्मा वक्त कहता है--
नहीं, अब और नहीं
गर्भस्थ हूं तो क्या-
सवाल तो करूंगा मांगूगा पिताओं से
निश्चित-निश्चिंत उज्वल वर्तमान
धरती पर आने की
कीमत वसूलूंगा।
भविष्य और वर्तमान की संधि पर बैठा
विलाप कर रहा है
अबूढ़ा समय
बिला गए हैं उसके सपने
कट गई है डोर
कब कहां गिरेगा बूढ़ा समय
जो सबका पिता है,
खो गया है उसका प्रमाण-पत्र
पुरखों का दिया
10-4-09
Wednesday, April 8, 2009
कविता की किताब
कल की सुबह के बारे में
कल वाले कल के पहले वाले कल ही सोच लिया जाय
यह सोचते हुए, कल सोचा कि
कल सुबह कविता वाली
वह किताब पढूंगा
दफतर जाने के पहले के वक्त में
दूबे जी से मिलना क्या आज ही जरूरी है
कल न भी मिले
तो क्या
इसतरह तो कविता वाली वह किताब
कब पढ़ी जाएगी ?
अक्षरों और आंखो के बीच तरंगायित समय की दूरियों
को फलांग कर आई आवाजों से
लड़ते हुए
पढ़ते हुए कविता की किताब
सुना मैनें
बेटा कुछ कह रहा था मम्मी से
गुस्से में....
दबा कर दांत मम्मी ने कुछ कहा, सुना जो मैनें वह नहीं था
जो मम्मी नें कहा था
वह नहीं,
मै अपनी आशंका को सुन रहा था जिसमें
पैसा
खरीद फरोख्त
दोस्त से मिलने की मुश्किलात मसलन
मोटर साइकिल में पेट्रोल
महीनें की तारीख आदि
जैसा कुछ सुनाई दिया
यह डर भी कि
भड़क जाएगा लड़का
तंगहाली पर
तन गया तनाव कविता वाली किताब को पढ़ते हुए
कविता
खिसक गई कोने में
खाली कर दी जगह
दुख और अभावों और आशंकाओं
का अंधकार बैठ गया जम कर जहां
बैठना चाहती थी कविता
अभी बिलकुल अभी पहले
कुछ देर
इसी डर और तनाव और अभाव और जरूरत और संकोच से
भरे वक्त में
मैं पढ़ रहा था
कविता वाली वह किताब
दफतर जाने के पहले के हरे भरे वक्त में
खोज रहा था
बचपन का छूटा हुआ
‘सी-सा’ पर फिसलने-चढ़ने का खेल
कविता की किताब में जबकि
डर और अभाव और आशंका और क्रोध से भरा
किताब का बाहर
बदल बदल दे रहा था मेरा भीतर
बार-बार
पढ़ते हुए
कविता की किताब!
इसतरह पढ़ी गई
कविता की किताब
पाटा गया
दफतर के जाने के पहले का हरा भरा वक्त
खेला गया ‘सी-सा’ का खेल
वक्त के कूबड़ पर बिठाई गई
कविता
उछाली गई
दफतर जाने से पहले
कहा गया-
सिद्ध हुई
कविता की ताकत
अपराजेय ?
...................................................
7.4.09
कल वाले कल के पहले वाले कल ही सोच लिया जाय
यह सोचते हुए, कल सोचा कि
कल सुबह कविता वाली
वह किताब पढूंगा
दफतर जाने के पहले के वक्त में
दूबे जी से मिलना क्या आज ही जरूरी है
कल न भी मिले
तो क्या
इसतरह तो कविता वाली वह किताब
कब पढ़ी जाएगी ?
अक्षरों और आंखो के बीच तरंगायित समय की दूरियों
को फलांग कर आई आवाजों से
लड़ते हुए
पढ़ते हुए कविता की किताब
सुना मैनें
बेटा कुछ कह रहा था मम्मी से
गुस्से में....
दबा कर दांत मम्मी ने कुछ कहा, सुना जो मैनें वह नहीं था
जो मम्मी नें कहा था
वह नहीं,
मै अपनी आशंका को सुन रहा था जिसमें
पैसा
खरीद फरोख्त
दोस्त से मिलने की मुश्किलात मसलन
मोटर साइकिल में पेट्रोल
महीनें की तारीख आदि
जैसा कुछ सुनाई दिया
यह डर भी कि
भड़क जाएगा लड़का
तंगहाली पर
तन गया तनाव कविता वाली किताब को पढ़ते हुए
कविता
खिसक गई कोने में
खाली कर दी जगह
दुख और अभावों और आशंकाओं
का अंधकार बैठ गया जम कर जहां
बैठना चाहती थी कविता
अभी बिलकुल अभी पहले
कुछ देर
इसी डर और तनाव और अभाव और जरूरत और संकोच से
भरे वक्त में
मैं पढ़ रहा था
कविता वाली वह किताब
दफतर जाने के पहले के हरे भरे वक्त में
खोज रहा था
बचपन का छूटा हुआ
‘सी-सा’ पर फिसलने-चढ़ने का खेल
कविता की किताब में जबकि
डर और अभाव और आशंका और क्रोध से भरा
किताब का बाहर
बदल बदल दे रहा था मेरा भीतर
बार-बार
पढ़ते हुए
कविता की किताब!
इसतरह पढ़ी गई
कविता की किताब
पाटा गया
दफतर के जाने के पहले का हरा भरा वक्त
खेला गया ‘सी-सा’ का खेल
वक्त के कूबड़ पर बिठाई गई
कविता
उछाली गई
दफतर जाने से पहले
कहा गया-
सिद्ध हुई
कविता की ताकत
अपराजेय ?
...................................................
7.4.09
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